यह कहना मुश्किल है कि नसरीन* ने इस सेंटर को ढूँढा या इस सेंटर को नसरीन ने पाया है। यह 2020 साल की शुरुआती महीनों की बात है। उस समय पूर्वोत्तर दिल्ली का इलाका दंगों की चपेट में आ चुका था। नसरीन इस इलाके की शिव विहार सोसायटी की रहने वाली थी। उसके आस-पास की उसके आँखों के सामने बिखर चुकी थी। अब वह स्कूल नहीं जा पा रही थी और बेहद मानसिक तनाव महसूस कर रही थी। उसने इंटरनेट से किसी परोपकारी व्यक्ति का ई-मेल पता ढूँढ़कर निकाला और उस व्यक्ति से मदद की गुहार लगाई। जब मामला थोड़ा शांत हो गया, तो एक स्थानीय गैर-लाभकारी संगठन के कार्यकर्ता ने शिव विहार आए। इस संगठन लोग लड़कियों के लिए सामुदायिक केंद्र का मैनेजमेंट करने के लिए किसी युवती की तलाश कर रहे थे। इसी मकसद से वे शिव विहार आए थे। शिव विहार और आस-पास के लोगों ने संगठन के लोगों को धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलने वाली लड़की का नाम बताया। और इस तरह से, वह गैर-लाभकारी संगठन नसरीन तक पहुँच गया। इस इलाके में कभी भी स्कूल न जा सकी, स्कूल की पढ़ाई छोड़ चुकी या जिन पर हिंसा हुई हो या दंगों की वजह से उत्पीड़ित हुई, कई लड़कियाँ या युवतियाँ रहती थी। इस संगठन ने नसरीन को ऐसी लड़कियों और युवतियों को संगठित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी।
इन चार सालों में नसरीन का सफ़र कई रास्तों से होकर गुज़रा। सबसे पहले तो उसने इन लड़कियों और युवतियों का संगठित करने का काम किया, फिर वह इनकी प्रशिक्षक (ट्रेनर) बनीं और आज वह इस सेंटर की इन-चार्ज (मुखिया) हैं। वह कॉमर्स में ग्रैजुएट डिग्री की पढ़ाई भी कर रही है। अपनी डिग्री पूरी होने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वह अमेरिका जाना चाहती हैं। मैंने जब उससे कहा, ‘विदेश जाकर पढ़ने की बजाए आप अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में भी आगे की पढ़ाई कर सकती है।’ तब उसने ‘मैं इस बारे में सोचूँगी’ कहते हुए जोड़ा कि वह ‘अज़ीम प्रेमजी’ से मिलने की दिली ख़्वाहिश रखती हैं।
“अपने हक़ का खाना खा रही हैं लड़कियाँ। अपनी एजुकेशन के लिए लड़ रही हैं। पैसे बचा रही हैं, अपनी बातें रख रही हैं और हरासमेंट (उत्पीड़न) के बारे में बात कर रही हैं।”
मैंने सेंटर के इस इलाके पर हो रहे असर के बारे में नसरीन से जानना चाहा। इस सेंटर के असर के बारे में बताते हुए उसने कहा, “अपने हक़ का खाना खा रही हैं लड़कियाँ। अपनी एजुकेशन के लिए लड़ रही हैं। पैसे बचा रही हैं, अपनी बातें रख रही हैं और हरासमेंट (उत्पीड़न) के बारे में बात कर रही हैं।”
हमने इससे मिलती-जुलती बात रुबिना और इशानी (इन्होंने साथ मिलकर युवाओं के लिए एक गैर-लाभकारी संस्था की स्थापना की है) से भी सुनी। हम उनके लखनऊ ऑफ़िस में बैठे थे, तब उन्होंने कहा कि, “लड़कियों को अब आगे आना चाहिए। ऐसा स्थानीय स्तर पर ज़्यादा-से-ज़्यादा (युवा लड़कियों) के आदर्श स्थापित कर होगा। इसी समुदाय में रहने वाली औरतें यहीं रहकर जानकारी की मौजूद दरारों को भर रही हैं और बदलाव की लहर ला रही हैं।” रुबिना और इशानी पहली बार मुलाक़ात कुछ साल पहले फ़ेलोशिप प्रोग्राम में हुई थी। इसके बाद उन्होंने अलग-अलग राज्यों में बाल-संरक्षण और लाइलीहुड (आजीविका) पर सात सालों तक काम किया। पूरे सात सालों बाद अपनी संस्था बनाने के लिए वे फिर से मिलीं। वे लखनऊ और उसके आस-पास के इलाकों में ज़ादा-से-ज़्यादा युवा महिलाओं को समाज के लिए आदर्श बनाना चाहती हैं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माहौल में समुदायों के भीतर रहकर काम करना आसान नहीं होता है। इन सबके बावजूद वे अपने व्यक्तिगत, राजनीतिक और व्यावसायिक जीवन को सावधानी से आगे बढ़ा रही हैं।

एनजीओ में काम जारी है।
मीनाक्षी के लिए यह संतुलन बनाना इतना मुश्किल नहीं रहा। उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के बाद अहमदाबाद के जुहापुर की मुस्लिम औरतों के साथ मिलकर काम करना शुरु किया। मैं उसे दो बार मिला। जिस नॉट-फॉर-प्रॉफिट (गैर-लाभकारी) संगठन के लिए वह काम कर रही थीं, उसके ऑफिस में काम करने वाली इकलौती हिन्दू महिला थीं। यहाँ वह लगभग 22 वर्षों से काम कर रही थीं और इसके लिए उन्हें कोई तनख़्वाह या वेतन नहीं मिलता था। वह अपने वर्तमान काउसलंर के काम में हमेशा व्यस्त रहती थी। उनका सारा दिन औरतों, लड़कियों से मिलने, उनकी समस्याएँ सुनने और उन्हें कई मुद्दों पर सलाह-मशविरा देने में गुज़रता है। जब वह शाम को घर पहुँचती है, तो सबसे पहले वह अपने मोबाइल की बैटरी चार्ज करती हैं, क्योंकि वह जानती है कि उन्हें रात में कई फोन आएँगे। मैंने उनसे इन वर्षों में हुए बदलावों के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया, “वायलेंस पहचान रहीं हैं औरतें। मैं अस्सी के दशक में टीवाय (ग्रैज्युएशन के तीसरे साल) में थी, तब मैंने जेण्डर पर एक पेपर लिखा था। तब से मैं मानती हूँ कि हर औरत में समझदारी है कि मेरे साथ क्या हो रहा है। उन्हें खुल कर बात करने की हिम्मत नहीं मिलती। यहाँ आती हैं तो खुल कर बात करती हैं और एक-दूसरे को हिम्मत देती हैं।”
“वायलेंस पहचान रहीं हैं औरतें। मैं अस्सी के दशक में टीवाय (ग्रैज्युएशन के तीसरे साल) में थी, तब मैंने जेण्डर पर एक पेपर लिखा था। तब से मैं मानती हूँ कि हर औरत में समझदारी है कि मेरे साथ क्या हो रहा है। उन्हें खुल कर बात करने की हिम्मत नहीं मिलती। यहाँ आती हैं तो खुल कर बात करती हैं और एक-दूसरे को हिम्मत देती हैं।”
तो उन्होंने बताय, “वायलेंस पहचान रहीं हैं औरतें। मैं अस्सी के दशक में टीवाय (ग्रैज्युएशन के तीसरे साल) में थी, तब मैंने जेण्डर पर एक पेपर लिखा था। तब से मैं मानती हूँ कि हर औरत में समझदारी है कि मेरे साथ क्या हो रहा है। उन्हें खुल कर बात करने की हिम्मत नहीं मिलती। यहाँ आती हैं तो खुल कर बात करती हैं और एक-दूसरे को हिम्मत देती हैं।”
मीनाक्षी के कार्यालय में होने वाली मीटिग्स इसी नज़ारे को पेश करती हैं। इसे मैंने ख़ुद तीन बार देखा है। आमतौर पर, मीटिंग की शुरुआत में सिर्फ़ तीन से चार ही औरतें होती हैं, लेकिन आधा घंटा होते-होते कमरा 40 से 50 औरतों और लड़कियों से भर जाता था। इस मीटिंग में यह लड़कियाँ और औरतें या तो अपनी व्यक्तिगत परेशानियों को साझा करती हैं, या अपनी परेशानियों को बताने वाली दूसरी औरतों का सहारा बनती हैं। इसमें दुनिया भर की समस्याओं पर भी चर्चा और विचार-विमर्श होता है। मैंने उन्हें जुहापुर में ज़मीन व घरों की बढ़ती कीमतों, नशे के चंगुल में फँसते हुए नौजवान, लड़कियों को उच्चतर माध्यमिक शिक्षा पूरी कराने के लिए ‘एनआईओएस केंद्र’ चलाने की योग्यता और चुनाव जैसे मुद्दों पर बात करते हुए सुना है।
मीनाक्षी के संगठन के लोगों से बात करने पर ऐसा महसूस हुआ कि मैं किसी ऐसे समुदाय-आधारित संगठन के लोगों से बात कर रहा हूँ, जिसका कोई नेता नज़र नहीं आता था। इसके अलावा, रोमिला* बातचीत करने का अनुभव भी कुछ अलग ही था। वह एक चुनौतीपूर्ण क्षेत्र में निडर होकर 25 साल से ज़्यादा समय तक काम करने की ज़िंदा मिसाल हैं। उन्होंने बिल्कुल सफ़ाई से अपनी बात रखी। साथ ही उनकी बातों में आत्मविश्वास, हिम्मत और सच्चाई को भी साफ़ देखा जा सकता था। उन्होंने हमें औरतों पर हिंसा की कई घटनाओं के बारे में बताया। यह सारी घटनाएँ हमारे सिस्टम में गहराई तक जड़े जमा चुकी पितृसत्ता की वजह से हुई थी। उनकी सुनाई इन घटनाओं में महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण और समुदाय आधारित कामों के महत्व या ज़रूरत को भी समझा जा सकता है। ऐसी भी कुछ बातें थी, जो उन्होंने खुलकर कही नहीं, लेकिन उन बातों को साफ़ तौर पर समझा जा सकता है। वे बातें थीं, जेण्डर के कारण होने वाली हिंसा का मुकाबला करने के लिए ज्ञान या जानकारी का बहुत महत्व होता है। साथ ही इस मुकाबले को लड़ने के ले अपने दामन को साफ़ मन को स्वच्छ रखना होता है।

समुदाय-स्तर के नेतृत्व को आधार देने वाली एक कार्यशाला का दृश्य
समुदाय-स्तर के नेतृत्व को आधार देने वाली एक कार्यशाला का दृश्य
मन की शुद्धता से ही प्रेरित होकर लखनऊ के किंग जॉर्ज कॉलेज की एक युवा स्त्री रोग विशेषज्ञ अपनी प्रैक्टिस छोड़कर और लिंग-परीक्षण जैसी घिनौनी प्रथा के ख़िलाफ़ लड़ने की ठान ली। डॉ. निशा सिंह*, ने 28 वर्षों से अधिक समय तक उत्तर प्रदेश में कई लिंग-परीक्षण रैकेटों का भंडाफोड़ किया है। डॉ. निशा इस कारोबार के अर्थशास्त्र को बेहतरीन ढंग समझाती हैं। इतने वर्षों बाद उन्हें आज भी याद है कि किस वजह से उन्हें अपने क्लीनिक की दहलीज़ पार करनी पड़ी थी।
डॉ निशा लखनऊ के एक बेहतरीन परिवार से थीं। “कहीं यह लड़की तो नहीं है?” – स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में काम करते डॉ. निशा को कई बार यह सवाल सुनना पड़ा। उनके पास आने वाले कई पति-पत्नियों के युवा जोड़ें अक्सर उनसे यह सवाल पूछा करते। इस सवाल को पूछने वालों में शिक्षक, सरकारी अफ़सर, बड़े-बड़े व्यापारिक परिवार के लोग तक शामिल थे। वह हैरान थी कि यह सवाल रुक क्यों नहीं रहा है। उन्होंने डॉक्टरों और प्रशासकों के साथ मिलकर इसे रोकने की कोशिश की, लेकिन उन्हें एहसास हुआ कि लालच और असंवेदनशीलता ने संवेदनशील और नैतिकता पहले ही मात दे रखी है। जब ‘गर्भधारण पूर्व एवं प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम 1994’ के तहत चिकित्सकों पर छापे मारे गए, तब डॉ. सिंह ने न्यायपालिका के साथ मिलकर भी काम किया। दुःख की बात है कि ज़्यादातर मामलों में आरोपी बरी हो गए।
हम लखनऊ के मल ब्लॉक में हरे-भरे आम के बागों से होकर गुज़र रहे थे। मल के आम के बाग़ान पास के मलिहाबाद के आमों जितने लोकप्रिय नहीं थे, लेकिन मल में कई आम के बागों के पेड़ बौराए (फूलों से लदे) हुए थे। अपने सफ़र के बारे में बात करते हुए डॉक्टर ने उत्साहपूर्वक आम के पेड़ों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, कहीं ‘बौराए गए हो क्या’ कहावत यहीं से तो नहीं आई?

लखनऊ के आम के बाग़
इस घटना का डॉक्टर के चुने हुए रास्ते से शायद ही कोई संबंध था, लेकिन यह सही है कि जिस काम के लिए उन्होंने अपनी ज़िंदगी समर्पित कर दी थी, उसके लिए बड़े पैमाने पर लीक से हटकर सोचने की ही ज़रूरत थी। यही सोच और जुनून भारत के सोशिएल सेक्टर में काम कर रही नसरीन, रोमिला, रुबीना, इशानी, मीनाक्षी और अनगिनत जैसी कई महिलाओं को आगे बढ़ने का हौसला देता रहता है।
*कई कारणों के चलते नाम बदल दिए गए हैं।